LIVING WITH CANCER

कैंसर के साथ जी रहे हैं

खुद को कैंसर होने की बात पता चलने के लिए

कैंसर होने का पता चलना, जीवन को बदलने वाली घटना हो सकती है। कैंसर होने का पता चलने के बाद, व्यक्ति बहुत सारे मनोविकारों और भावनाओं से गुजर सकता है। ऐसी परिस्थितियों में, कैंसर पीड़ितों की प्रतिक्रिया अलग-अलग हो सकती है, लेकिन कुछ ऐसी सामान्य बातें हैं, जो ज्यादातर लोग अनुभव करते हैं। यह जानना महत्वपूर्ण है कि ये मनोविकार और भावनाएं पूरी तरह से सामान्य होती हैं और कैंसर मरीज के जीवन में ऐसे तनावपूर्ण समय व परिस्थिति के लिए स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती हैं।

जब पहली बार पता चलता है कि हमें कैंसर हो गया है, तो इस स्थिति से निपटना कठिन हो सकता है। चाहें, डॉक्टर अपने क्लिनिक में या अस्पताल में यह बात बताए या कहीं बाहर किसी दोस्त या संबंधी द्वारा इस बात की सूचना मिले, तो पहली प्रतिक्रिया यही हो सकती है कि हमें सदमा पहुंच सकता है और हम अविश्वास की भावना से परेशान हो सकते हैं। यह बात सुनकर शरीर का सुन्न पड़ना या कुछ भी न कह पाना भी एक बहुत ही सामान्य प्रतिक्रिया, लोगों में देखने को मिलती है। इस खबर को पूरी तरह से आत्मसात करने और जो कहा गया, उसे समझने में कुछ समय लग सकता है क्योंकि दिल व दिमाग इस बात को मानने को तैयार ही नहीं होते। जांच के बाद, कैंसर होने की बात बताने वाला डॉक्टर अक्सर कैंसर के प्रभावों और इसके संभावित उपचारों के बारे में बताना शुरू रखते हैं, लेकिन सुनने वाले का दिमाग अभी भी जो शुरू में कहा गया यानी कैंसर होने की सूचना दी गई, उसी में अटका रहता है और वह डॉक्टर की बाकी बातों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाता या डॉक्टर द्वारा कही जा रही किसी भी बात को समझने में समर्थ नहीं होता। ऐसी खबर मिलने पर, “मैं अब कब तक जिंदा रह पाऊंगा”, “क्या इसका कोई इलाज है”, “क्या मेरे घर-परिवार, दोस्त, रिस्तेदारों आदि को यह बात पता है”, “क्या, मैं मरने वाला हूं” इत्यादि प्रश्न मन में आते हैं। यह भारतीय सेटिंग (ऐसी मरीज की स्थिति) में असामान्य बात नहीं है कि मरीज को कैंसर होने की बात न बताई जाए तथा साथ ही उसके साथ आए, उसके संबंधियों को यह बात समझाई न जाए। यह मरीज के लिए काफी परेशान करने वाली बात हो सकती है, अगर उसे इस बारे में बताया न जाए, क्योंकि हर कोई उसी के बारे में बात कर रहा होता है, जबकि उसे इस बात का पता नहीं होता या उसके साथ जो हो रहा है, उसके बारे में उसे बताया गया नहीं होता।

कैंसर होने का पता चलने के बाद, कुछ लोग इस बात पर विश्वास न करने की स्थिति में चले जाते हैं, और वे पूरी तरह से या थोड़ी-बहुत इस बात को मानने को तैयार ही नहीं होते और इस तथ्य को झुठलाने की कोशिश करते हैं। यह भावना केवल मरीज में ही नहीं, बल्कि उसके संबंधियों और दोस्तों में भी हो सकती है। ज्यादातर मरीजों में न मानने की स्थिति लंबे समय तक नहीं रहती और वे बाद में, इस बात को समझ जाते हैं और इसे स्वीकार कर लेते हैं। पर कुछ मरीज तो लगातार इस बात को न मानने से इंकार करते रहते हैं, जिसके चलते उनका उपचार नहीं किया जा सकता। अगर मरीज के संबंधी और दोस्त भी इस बात को मानने को तैयार नहीं होते कि उसके संबंधी या दोस्त को कैंसर हुआ है, तो स्थिति और भी कठिन होने लगती है और ऐसे में उन्हें समझाना मुश्किल होता है, क्योंकि डॉक्टर की बात, वे मानने को तैयार नहीं होते और जिसके चलते वे उपचार में सहयोग के लिए तैयार नहीं होते।

जब जांच आदि से कैंसर होने की पुष्टि हो जाती है और मरीज को कैंसर होने की बात बताई है, तो आमतौर पर वह गुस्सा करता है। यह गुस्सा कभी भी हो सकता है, लेकिन आमतौर पर इसे इनकार करने की अवधि के बाद देखा जाता है। मरीज का यह गुस्सा परिवार के लोगों, दोस्तों, चिकित्सा से जुड़े लोगों, कर्मचारी या किसी और के प्रति हो सकता है। क्रोध में आमतौर पर दिमाग में बार-बार एक ही बात आती है कि “मुझे ही क्यों”, और इस प्रकार से मरीज को लगता है कि यह रोग उसे ही क्यों हुआ, दूसरों को क्यों नहीं। कैंसर का पता चलने के बाद, होने वाले क्रोध के अलावा, अगर मरीज को लगता है कि कैंसर का पता लगाने में देरी हुई है या किसी अन्य कारणों से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है, तो इन बातों पर भी उसे गुस्सा आ सकता है।

आम तौर पर, कैंसर होने का पता चल जाने के बाद, भय, चिंता और घबराहट जैसी भावनाएं पनपती हैं। वैसे, ऐसी स्थिति में इन भावों का आना काफी स्वाभाविक है। कैंसर मरीजों में ऐसी भावनाओं का मुकाबला करना, अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग हो सकता है, लेकिन ज्यादातर मरीज अपने संबंधियों और दोस्तों के साथ इन भावनाओं को साझा करते हैं, जिससे उन्हें थोड़ा आराम मिलता है तथा साथ ही इलाज करने वाला डॉक्टर, ऐसी स्थिति से निकलने में मरीज की बराबर मदद कर सकता है। रोग की इस स्थिति के सभी तथ्यों को जानने के बाद, किए जाने वाले इलाज और उससे होने वाले परिणामों के चलते, ऐसी कुछ भावनाओं और आशंकाओं को दूर किया जा सकता है, जबकि कुछ मरीजों में, क्या होगा, इस बारे में नकारात्मक सोचने से उनकी आशंकाएं और चिंताएं और बढ़ सकती हैं। दूसरी ओर, कुछ ऐसे मरीज भी हो सकते हैं, जो ऐसी स्थिति का बेहतर तरीके से सामना कर सकते हैं, यदि वे इलाज के होने वाले परिणामों के बारे में बहुत कम जानते हैं, तो भी।

मरीज के साथ जो हो रहा है, उसे समझने तथा स्वीकार करने में उसे थोड़ा समय लग सकता है। कुछ मरीज कैंसर होने के कारणों को लेकर या ऐसी स्थिति में उनके संबंधियों को होने वाली परेशानी या उन पर पड़ने वाले बोझ को लेकर परेशान हो उठते हैं और अपराध बोध महसूस करते हैं। यह भी एक सामान्य भावना ही है, जिसे कोई भी अनुभव कर सकता है।

आशा एक आम भावना है, जो मरीजों में, इस स्थिति को स्वीकार करने पर आती है। इस बात को समझना कि कैंसर भी अन्य रोगों की तरह ही है और आज के समय में, सभी प्रकार के कैंसरों के लिए इलाज उपलब्ध है तथा ऐसी स्थिति से निपटने के लिए बराबर अच्छे-अच्छे नए इलाज आते जा रहे हैं, जिससे कैंसर के नियंत्रण के साथ ही मरीज ठीक भी हो रहे हैं।जिससे कैंसर के नियंत्रण के साथ ही मरीज ठीक भी हो रहे हैं।

देखभाल करने वाला व्यक्ति, वह होता है, जो बिना किसी पैसे-धन आदि मिलने की उम्मीद या लालच के, निस्वार्थ भाव से, किसी भी रोग से पीड़ित मरीज की सेवा करता है। अपने जीवनसाथी, भाई-बहन, रिश्तेदार, दोस्त, बच्चे या पड़ोसी सहित किसी की भी देखभाल की जा सकती है। लेकिन, यह ध्यान रखने वाली बात है कि कैंसर के मरीज की देखभाल या सेवा, अन्य रोग से पीड़ित मरीजों की देखभाल या सेवा से अलग हो सकती है।

किसी कैंसर के मरीज की देखभाल करना, एक सम्मानित और संतोषजनक अनुभव हो सकता है और ऐसी सेवा करके एक बड़ी उपलब्धि जितनी प्रसन्नता मिल सकती है, लेकिन हां, उसी समय, यह एक थका देने वाला और कष्टदायी अनुभव भी हो सकता है।

एक देखभाल करने वाले व्यक्ति की कई भूमिकाएं होती हैं, जो उसे मरीज के साथ निभानी पड़ती हैं। इन भूमिकाओं के बारे में जानकारी, नीचे दी गई है।

ऐसी परिस्थितियां बन जाने पर, जिसमें कई सारे कारणों के चलते, मरीज ठीक तरह से बात नहीं कर पाता, ऐसे में मुख्य देखभाल करने वाला व्यक्ति, उस मरीज के लिए एक वकील की तरह काम करते हुए निर्णय लेता है तथा मरीज को एकदम अच्छी अवस्था में रखने और उसके हितों को ध्यान में रखते हुए उसे सलाह-मशविरा देता है। यह देखभाल करने वाला व्यक्ति मरीज की अवस्था और उसे किए जाने वाले इलाजों आदि पर डॉक्टरों आदि से बातचीत कर सकता है। इतना ही नहीं, आवश्यक होने पर, देखभाल करने वाला व्यक्ति, परिवार के अन्य सदस्यों और दोस्तों आदि के साथ भी बात कर सकता है।

देखभाल करने वाला व्यक्ति मरीज से बातचीत करने में पूरी तरह से सक्षम होना चाहिए और उसे इस बात का भी पूरी तरह से ध्यान रखना चाहिए कि मरीज अपनी देखभाल को लेकर, उससे क्या चाहता है। ऐसा तभी किया जा सकता है, जब रोग की स्थिति, किए जा रहे इलाज और उससे होने वाले परिणामों के बारे में मरीज के साथ ईमानदारी से खुलकर बातचीत की जाए।

मरीज की बात सुनकर, उसके अनुसार कार्य करना, शायद देखभाल करने वाले व्यक्ति के लिए एक सबसे महत्वपूर्ण काम है। कैंसर और इसके होने वाले उपचारों के चलते, मरीज बहुत सारे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों से गुजर रहा होता है। अधिक खाने या व्यायाम करने के लिए उन्हें मनाना, तथा दूसरी ओर, उन्हें उन चीजों को करने से रोकना, जिसे वे अच्छी तरह से कर सकते हैं, बहुत ही कठिन होता है, और ऐसी चीजों का बहुत ही ध्यान रखना पड़ता है, नहीं तो इनका मरीज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

मरीज के लिए कई तरह की शारीरिक जरूरतें हो सकती हैं और जिन्हें देखभाल करने वाले व्यक्ति द्वारा पूरा करने की आवश्यकता होती है। इन जरूरतों में, दवाइयां देना, मरीज द्वारा अनुभव किए गए लक्षणों पर ध्यान देना तथा उन्हें नोट करना, परिस्थिति अनुसार मरीज को उपयुक्त दवा देना, मरीज को डॉक्टर के पास दिखाने ले जाना, उसके लिए खाना बनाना, अगर मरीज ज्यादा चल-फिर नहीं सकता है या चीजों आदि को नहीं उठा सकता है, तो ऐसी स्थिति में उसकी साफ-सफाई का ध्यान रखना आदि भी शामिल है।

उपचार के दौरान, मरीज को सहानुभूति की जरूरत होती है, और आमतौर पर, देखभाल करने वाला व्यक्ति उसके दुख में हमदर्द बनते हुए सहानुभूति दिखाता है या किसी ऐसे व्यक्ति से सहायता लेता है, जो यह काम बखूबी कर सके।

कैंसर और इसका इलाज, आर्थिक रूप से मरीज के लिए भारी हो सकता है, और ऐसी स्थिति में, फिर से देखभाल करने वाला व्यक्ति ही, मरीज की आर्थिक स्थिति और उसकी इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए, किए जाने वाले या किए जा रहे उपचारों में से सही या गलत या प्रभावी उपचारों का आकलन करता है। इसके अलावा, बीमार व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को समझना, उसके लिए जीवन यापन को ध्यान में रखना आदि, इन सारी बातों को देखभाल करने वाले व्यक्ति द्वारा ध्यान में रखना पड़ता है।

भारतीय सेटिंग (रोग की स्थिति) में, एक ही समय में या अलग-अलग समयों पर मरीज की देखभाल करने वाले अलग-अलग लोग हो सकते हैं। किसी मरीज के सभी देखभाल करने वाले व्यक्तियों के लिए, यह अच्छा होगा कि वे एक ऐसे व्यक्ति को नियुक्त कर लें, या अपना अगुआ मान लें, जिसके पास मरीज की देखभाल या सेवा की सारी जिम्मेदारी और सारी जानकारी रहे। ऐसा करने से, डॉक्टरों, नर्सों (हेल्थकेयर टीम) आदि के साथ अच्छी तरह से बातचीत हो पाएगी और डॉक्टरों को भी पता रहेगा कि मरीज के अलावा और किससे बात करनी है।

अंततः, एक देखभाल करने वाले व्यक्ति को, मरीज की देखभाल के साथ ही अपना भी ध्यान रखने की जरूरत होती है। किसी मरीज की देखभाल करना तब और मुश्किल हो जाता है, जब अन्य सहयोग मिलने मुश्किल दिखते हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि देखभाल करने वाले व्यक्ति को अपने आराम और अपना ध्यान रखने के लिए भी समय मिले ताकि वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रह सके। पर्याप्त नींद लेने और आराम मिलने से, और उस समय दूसरों के द्वारा मरीज की देखभाल करने से, आप फिर से तरो-ताजा होकर अपने प्रियजनों की देखभाल जारी रख सकते हैं।

कैंसर का उपचार, महिला और पुरुष, दोनों प्रकार के मरीजों में, भविष्य में बच्चे पैदा करने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। कैंसर के उपचार के तरीके सर्जरी, कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी, हार्मोन थेरेपी, जैविक चिकित्सा या इम्यूनोथेरेपी हो सकते हैं। यदि कोई मरीज, इलाज पूरा हो जाने के बाद, बच्चे पैदा करना चाहता है, तो इलाज शुरू करने से पहले ही, उसे ऑन्कोलॉजिस्ट के साथ बात करनी चाहिए, ताकि इस प्रकार के उपचार करते समय इस बात को ध्यान में रखा जा सके।

कैंसर के उपचार के दौरान, कई तरह से प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है। इस समस्या से निपटने के लिए संभावित तरीकों के साथ, आम बातों को नीचे दिया गया है।

आमतौर पर, यह सिफारिश की जाती है कि कैंसर का इलाज कराए हुए पुरुष या महिला मरीज, कम से कम इलाज पूरा होने के एक साल तक बच्चे पैदा करने की कोशिश न करें। कीमोथेरेपी जैसे कैंसर उपचार के चलते, शुक्राणुओं और अंडों को नुकसान पहुंच सकता है, जिससे शिशु के जन्मदोष पैदा होने के खतरे बढ़ सकते हैं। उपचार के बाद एक वर्ष का अंतराल रखकर इस जोखिम को कम किया जा सकता है।

कीमोथेरेपी

महिला मरीजों में, कीमोथेरेपी के परिणामस्वरूप, अंडों के उत्पादन के लिए अंडाशय का कार्य प्रभावित होता है। मरीज को इस बात का अनुभव हो सकता है कि कीमोथेरेपी शुरू करने के बाद, उसके पीरियड (मासिक धर्म) रुक गए हैं। कीमोथेरेपी के पूरा होने के बाद, अंडाशय का कार्य और पीरियड (मासिक धर्म) का फिर से आना शुरू होना, मरीज की आयु तथा उपचार के पहले होने वाले अंडाशय के कार्यों पर अलग-अलग विस्तारित हो सकते हैं। उन युवा मरीजों में, जिनकी आयु 30 वर्ष या उससे कम है, उनमें ठीके होने की अधिक संभावना होती है, जबकि 45 वर्ष से अधिक आयु वालों में इसकी संभावना कम हो सकती है। इसी तरह, कीमोथेरेपी से शुक्राणु के उत्पादन संबंधी पुरुष मरीज की प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो सकती है। कीमोथेरेपी के दौरान और बाद में, शुक्राणु गणना (वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या) बहुत कम हो सकती है या पूरी तरह से रुक सकती है। रिकवरी होती है और यह मरीज की उम्र तथा उपचार के पहले, पुरुष में उपस्थित शुक्राणु गणना पर निर्भर करती है।

रेडियोथेरेपी

श्रोणि (पेल्विस) के क्षेत्र में रेडियोथेरेपी होने पर किसी महिला मरीज में अंडाशय का कार्य प्रभावित हो सकता है तथा पुरुष मरीज में वृषण के कार्य प्रभावित हो सकते हैं, जिसके चलते, उसमें बच्चा पैदा करने की ताकत जा सकती है। यदि शरीर के उस भाग में उपचार करने की आवश्यकता होती है, तो डाक्टर ठीक से देखते और विचार करते हैं, तथा, जितना संभव होता है, उतना वृषण या अंडाशय को विकिरणित होने से बचाने की कोशिश करते हैं। श्रोणि (पेल्विस) के अन्य भागों में रेडियोथेरेपी होना भी कम प्रजनन क्षमता का कारण बन सकता है। वे पुरुष मरीज, जिनमें श्रोणि (पेल्विस) की रेडियोथेरेपी की जाती है, उनमें अन्य यौन अंगों में नपुसंकता आ सकती है या ये अंग शिथिल हो सकते हैं।

कैंसर के उपचार के बाद प्रजनन क्षमता में सुधार के तरीके

प्री-प्लांड (पूर्वनियोजित) सर्जरी

कुछ कैंसर, विशेषकर वे जो आमाशय (श्रोणि) के निचले भागों, जैसे कि गर्भाशय ग्रीवा, गर्भाशय या अंडाशय को प्रभावित करते हैं, उनकी सर्जरी पूरी रोगमुक्ति (इलाज) को प्रभावित करती है। गर्भाशय या अंडाशय को हटाने से महिला मरीज के भविष्य में गर्भवती होने की संभावना समाप्त हो जाती है। यदि कोई मरीज भविष्य में बच्चे पैदा करना चाहता है, तो आपरेशनों को (कैंसर के बहुत ही शुरूआती स्टेज में) इस तरीके से किया जाता है कि एक अंडाशय को छोड़ दिया जाए या शुरूआती गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर आदि में गर्भाशय को निकाला ही न जाए।

स्पर्म बैंकिंग (शुक्राणु संग्रहण)

शुक्राणु संग्रहण (स्पर्म बैंकिंग) एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें कीमोथेरेपी शुरू करने से पहले ही किसी मरीज पुरुष के शुक्राणु को स्टोर कर लिया जाता है। शुक्राणु वीर्य का हिस्सा होता है, जो स्खलन पर उत्पन्न होता है। मरीज के वीर्य को एक शुक्राणु बैंक में शुल्क लेकर संग्रहीत किया जाता है, और इस संग्रहीत शुक्राणु का उपयोग भविष्य में जब मरीज बच्चा पैदा करना चाहता है, तो किया जाता है। कीमोथेरेपी वाले युवा पुरुष मरीजों में, शुक्राणुओं की संख्या और गुणवत्ता मरीज की आयु और प्रजनन क्षमता के आधार पर अस्थायी या स्थायी रूप से प्रभावित हो सकती है। इसलिए, उपचार शुरू करने से पहले शुक्राणु को स्खलित कराकर, फ्रीज करके स्टोर (क्रायोप्रिसर्व्ड) कर दिया जाता है।

कैंसर का उपचार पूरा होने के बाद, यदि मरीज की शुक्राणु गणना (स्पर्म काउंट) सामान्य और पहले जैसी अच्छी रहती है, तो वह सामान्य रूप से बच्चे पैदा करने के लिए प्रयास कर सकता है। और अगर ऐसा नहीं है, तो संग्रहित शुक्राणु का उपयोग किया जा सकता है। संग्रहित शुक्राणु को मरीज की पत्नी या जीवन संगिनी के गर्भाशय में डाला जाता है या महिला से उत्पादित अंडे (अंडाणु) के साथ निषेचित करने के लिए विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) कराया जाता है।

भ्रूण संग्रहण (एंब्रायो स्टोरेज)

कैंसर उपचार शुरू करने से पहले, किसी महिला मरीज के अंडे (अंडाणु) को निकालकर विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) के माध्यम से, उसके जीवन साथी के शुक्राणु के साथ निषेचित किया जा सकता है। निषेचित अंडे (अंडाणु) को फ्रीज करके संग्रहित किया जा सकता है। उपचार पूरा हो जाने के बाद, जब महिला बच्चे पैदा करना चाहती है, तो इस निषेचित अंडे (अंडाणु) को गर्भ में प्रत्यारोपित किया जा सकता है। हार्मोनों का उपयोग करके महिला से अंडे (अंडाणु) को हटाया जा सकता है।

अंडे (अंडाणु) को फ्रीज करना

उन महिला मरीजों में जिनकी शादी नहीं हुई है या जिनका कोई जीवन-साथी नहीं है, अगर वे उपचार के पहले, प्रजनन क्षमता को बचाए रखना चाहती हैं, तो उनके अंडे (अंडाणु) को निकालकर शुक्राणु जैसा ही फ्रिज किया जा सकता है। इसका उपयोग बाद में आईवीएफ उपचार के लिए किया जा सकता है। अपेक्षाकृत, यह एक अप्रशिक्षित तकनीक है, जो बहुत सफल नहीं मानी जाती है।

कृत्रिम गर्भाधान

यह एक ऐसी तकनीक है, जिसमें शुक्राणु को पुरुष से या शुक्राणु बैंक से लिया जाता है और महिला की अनुमति से अंडे को निषेचित करने के लिए उसके गर्भाशय में डाला जाता है। इसके सफल होने के लिए, ओव्यूलेशन (डिंबोत्सर्जन) के समय गर्भाधान किया जाता है।

इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ)

यह एक प्रकार का उपचार है, जिससे दंपति को तब बच्चा पैदा करने में मदद मिलती है, जब बच्चे पैदा करने का स्वभाविक (प्राकृतिक) तरीका काम नहीं करता है। आईवीएफ का उपयोग, उन कैंसर मरीजों में एक तकनीक के रूप में किया जा सकता है, जिनकी प्रजनन क्षमता इलाज के कारण कम हो गई हो। आईवीएफ एक बहुस्तरीय प्रक्रिया है, जिसके बारे में नीचे विस्तार के बताया गया है।

शुक्राणु का संग्रहण- शुक्राणु को सीधे पुरुष से या अगर शुक्राणु बैंक में है, तो क्रायोप्रिसेस्ड नमूने से, वहां से एकत्र किया जाता है।

अंडाशय उत्तेजन और अंडे (अंडाणु) की फिर से प्राप्ति- इसमें, महिला जीवन साथी से हार्मोंनों के इंजेक्शन के बाद, बांझपन (इन्फर्टिलिटी) विशेषज्ञ द्वारा महिला से अंडे को फिर से प्राप्त किया जाता है। हार्मोनों के द्वारा, अंडाशय में अंडा परिपक्व होने में सक्षम होता है। इसके बाद, डॉक्टर अंडाशय में एक सुई डालता है तथा परिपक्व अंडों को निकालता है। यह प्रक्रिया संज्ञाहरण (बेहोश) करके की जाती है।

निषेचन- शुक्राणु और अंडे की पुनर्प्राप्ति के बाद, भ्रूण बनाने के लिए, दोनों को प्रयोगशाला में निषेचित किया जाता है।

प्रत्यारोपण- गर्भावस्था शुरू करने के लिए, भ्रूण को महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है।

इस प्रक्रिया की सफलता के लिए एक या अधिक प्रयास करने पड़ सकते हैं। अगर इस प्रक्रिया से कई भ्रूण बनाए जाते हैं, तो उनमें से एक या दो को गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जा सकता है, और बाकी को भविष्य में जरूरत पड़ने पर उपयोग के लिए फ्रिज करके रखा जा सकता है।

वृषण शुक्राणु निष्कर्षण (टीएसई)

यह उन पुरुषों में प्रयोग की जाने वाली प्रक्रिया है, जिन्होंने उपचार से पहले शुक्राणु बैंकिंग का उपयोग नहीं किया है और जिनमें शुक्राणु गणना में कमी आई है, या शुक्राणु कम हैं और वे बच्चे पैदा करना चाहते हैं। इस विधि में व्यक्ति को बेहोश करके एक छोटे आपरेशन द्वारा, उनके वृषण के एक छोटे हिस्से को हटा दिया जाता है, ताकि शुक्राणु दिख सकें। यदि शुक्राणु पाए जाते हैं, तो इन शुक्राणुओं का उपयोग, ऊपर बताई गई प्रक्रिया अनुसार, अंडे को निषेचित करने के लिए किया जाता है।

वर्तमान समय की बात करें, तो कैंसर के लिए नैदानिक (रोग का पता लगाने) और उपचार के विकल्प काफी उन्नत हैं, और इनके चलते, कई सारे मरीजों को ठीक किया जा सकता है तथा यह इलाज और भी कारगर हो सकता है, अगर शुरुआती स्टेज में ही कैंसर का पता चल जाए। उन मरीजों में, जिनमें कैंसर के बढ़ जाने, यानी बाद के स्टेजों में इसका पता चलता है, उनमें भी, उन्नत इलाज के चलते, पिछले एक दशक में काफी अच्छा प्रभाव पड़ा है तथा कई प्रकार के कैंसरों से लड़ते हुए, कितने सारे मरीज वर्षों तक जीवित रहे हैं। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि, कैंसर के इलाज के बाद जीवन के बारे में बात किया जाए और सीखा जाए। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण बातें नीचे दी गई हैं।

दुष्प्रभावों (साइड इफेक्ट) से उबरना

कैंसर के उपचार के दुष्प्रभावों को ‘तत्काल होने वाले’ और ‘देर से होने वाले’ दुष्प्रभावों में बांटा जा सकता है। तत्काल प्रभाव वे होते हैं, जो उपचार के दौरान और उपचार के बाद तीन महीने तक दिखते हैं, जबकि देर से होने वाले दुष्प्रभाव वे हैं, जो महीनों से लेकर वर्षों तक होते हैं। ये दुष्प्रभाव कैंसर के प्रकार और किए जाने वाले इलाज के प्रकारों पर निर्भर करते हैं। अधिकांश तात्कालिक दुष्प्रभाव, इलाज के बाद, लगभग 3 महीनों में, आमतौर पर 6 सप्ताह के भीतर खत्म हो जाते हैं। जबकि, उनमें से कुछ लंबे समय तक बने रह सकते हैं। अगर मरीज को यह पता हो कि, जो उपचार किया जा रहा है, उसके क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं, तो वह अच्छी तरह से ध्यान देकर, इन दुष्प्रभावों से निपटने में सक्षम हो सकता है। उपचार पूरा होने के बाद हेल्थकेयर टीम (डाक्टरों आदि) से मिलने वाले लगातार सहयोग से, दुष्प्रभावों को अच्छी तरह से प्रबंधित किया जा सकता है।

फॉलो अप (आगे की कार्रवाई करना)

उपचार के पूरा होने के बाद, समय-समय पर ऑन्कोलॉजिस्ट से उस व्यक्ति का मिलना, उपचार प्रक्रिया का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। परंतु, बहुत सारे मरीज इस बात पर ध्यान नहीं देते और समय-समय पर ऑन्कोलॉजिस्ट से नहीं मिलते। उपचार के पूरा होने के बाद, एक निश्चित अवधि पर डॉक्टर से बार-बार मिलते रहना चाहिए, क्योंकि अगर डॉक्टर से काफी लंबे अंतराल के बाद मिला जाए, तो आगे की देखभाल प्रक्रिया में काफी समय लग सकता है। डॉक्टर से बराबर, नियत समय पर मिलने से, मरीज डॉक्टर को किसी भी स्थायी दुष्प्रभाव के बारे में बता सकता है और जिसके चलते उसका अच्छी तरह से इलाज हो सकता है। फॉलो अप (डॉक्टर से मिलने) का एक और सबसे बड़ा फायदा यह है कि मरीज की जांच आदि के साथ ही समय-समय पर उसके स्कैन, खून की जांच आदि के साथ अन्य परीक्षण होते रहते हैं, जिसके कैंसर के फिर से होने या न होने आदि का पता चलता है। अगर कैंसर के फिर से पनपने की बात जल्दी से पता चल जाती है, तो प्रभावी ढंग से उसका इलाज किया जा सकता है। अधिकांश कैंसरों में फॉलो अप प्रोसेस (नियत समय पर डॉक्टर से मिलते रहना) 5 सालों के लिए और कुछ कैंसरों में 10 साल तक हो सकता है।

आहार और पोषण

कैंसर के उपचार के बाद, हर मरीज को एक सामान्य स्वस्थ आहार लेना चाहिए। सही मात्रा में अन्य खाद्य पदार्थों के साथ ही फल और सब्जियों वाले संतुलित आहार की सलाह दी जाती है। कुछ स्थितियों में, मरीज अच्छी तरह से निगल नहीं पाते या एक ही बार में बड़ी मात्रा में भोजन ग्रहण नहीं कर सकते। ऐसी स्थितियों में, दिन भर में कम मात्रा में, कई बार भोजन करना बहुत ही अच्छा होता है। भोजन में पोषक तत्वों की अतिरिक्त मात्रा की जरूरत तभी पड़ती है, जब मरीज एक सामान्य आहार का सेवन न कर पाता हो।

गर्भावस्था

ऐसे परिवार, जो कैंसर के इलाज के बाद, (खासकर, जिसकी कीमोथेरेपी की गई हो), गर्भधारण की इच्छा रखते हैं, तो उन्हें सलाह दी जाती है कि इलाज के कम से कम एक साल बाद तक, गर्भधारण की कोशिश न करें। अगर, पुरुष मरीज के शुक्राणु, महिला मरीज के अंडाणु को संरक्षित या भ्रूण संरक्षण को अपनाया गया हो, तो 12 महीने तक गर्भधारण न करने के नियम का पालन करना जरूरी नहीं। सबसे अच्छा रहेगा कि गर्भ धारण करने की कोशिश करने से पहले, इस बारे में, इलाज करने वाले ऑन्कोलॉजिस्ट से बात कर ली जाए।

वापस काम पर जाना

उपचार पूरा होने के बाद, मरीज जब चाहें तब, काम पर वापस जा सकते हैं। इस बात के लिए कोई नियम नहीं है कि कब से काम शुरू किया जाए। अगर काम बहुत गहन या तनावपूर्ण है, तो पूरे दिन के लिए काम पर न जाकर चरणबद्ध तरीके से, कुछ घंटे नियत करके काम करना चाहिए। परिस्थिति के बारे में नियोक्ताओं से बातचीत करना अच्छा होता है, और वे काम पर लौटने की सुविधा प्रदान करने में आपकी मदद कर सकते हैं।

व्यायाम

धीरे-धीरे व्यायाम शुरू करना चाहिए, जैसा भी डॉक्टर के द्वारा सलाह दी जाए। कैंसर की घटनाओं को कम करने के लिए नियमित व्यायाम की मान्यता दी गई है। व्यायाम एक छोटे से वॉक पर जाने से लेकर, जिम जाने तक हो सकता है।

दिनचर्या (रूटिन) में वापस आना

उपचार और दुष्प्रभावों से निपटने के बाद, रोग के पता चलने से पहले वाली दिनचर्या (रूटिन) में वापस आने की कोशिश करना अच्छा होता है। मरीज के लिए अपने इलाज के साथ ही वह अभी जिस परिस्थिति से गुजरा होता है, उसके बारे में सोचना आम बात है। और इतना ही नहीं, कुछ मरीजों को तो, ऐसी स्थिति से बाहर निकलना काफी मुश्किल होता है। पिछली दिनचर्या में वापस आने से, जो हुआ, उसे भूलने और पहले की तरह जीवन जीने में सहायता मिलती है। इस संबंध में डॉक्टरों, दोस्तों, सहकर्मियों और परिवार का समर्थन भी महत्वपूर्ण होता है।

कैसे पता चलेगा कि कैंसर वापस हो रहा है?

कैंसर वापस हो रहा है, या इसका दुहराव हो रहा है, यह संकेत देने वाले कोई विशिष्ट लक्षण नहीं हैं। ये लक्षण, शरीर के उस भाग पर निर्भर करते हैं, जहां कैंसर फिर पनप रहा होता है। इतना ही नहीं, ये लक्षण, अन्य मरीजों में होने वाले लक्षणों की तरह ही और सामान्य लक्षणों की तरह ही होते हैं। किसी में कैंसर फिर हो रहा है, इसका संदेह तब पैदा होता है, जब ये सामान्य लक्षण, आमतौर की तुलना में, लंबे समय तक बने रहते हैं या मरीज फिर से अस्वस्थ महसूस करने लगता है और अधिक खा नहीं पाता है और वजन आदि कम होने के साथ, उसकी सेहत भी गिरने लगती है। चूंकि यह जानना मुश्किल होता है कि कैंसर प्रारंभिक चरण में वापस आ रहा है, इसलिए शेड्यूल का पालन करना महत्वपूर्ण होने के साथ ही कैंसर के प्रकार के आधार पर खून की जांच, स्कैन या अन्य परीक्षण करना आवश्यक होता है।

क्या, अब मैं ठीक हो गया हूँ?

कैंसर के इलाज के बाद, किसी भी मरीज द्वारा पूछा जाने वाला यह आम प्रश्न है। “ठीक होने (रोग-मुक्ति)” पद का मतलब होता है कि कैंसर चला गया है और कभी वापस नहीं होने वाला है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि, इलाज पूरा होने के तुरंत बाद, डॉक्टर यह नहीं बता पाते हैं कि कैंसर ठीक हो गया है। इसका कारण यह है कि, अगले कुछ वर्षों तक कैंसर के वापस होने का खतरा बना रहता है। यह कैंसर के स्टेजों पर निर्भर करता है, जितना बाद वाला स्टेज होगा, उतना ही कैंसर वापसी का खतरा होगा। डॉक्टर केवल यह बता सकते हैं कि 5 वर्षों तक फॉलो अप के बाद भी यदि कैंसर दुबारा नहीं होता है, तो मरीज ठीक हो गया है। इलाज पूरा होने के बाद, डॉक्टर रोग ठीक होने की संभावना का अनुमान लगाने में सक्षम हो सकते हैं। यह कैंसर के प्रकार, स्टेज और किए गए उपचार आदि पर आधारित होता है। डॉक्टर इस समय, कैंसर के ठीक होने के चांस के बारे में अनुमान लगा पाते हैं। कुछ मरीज ऐसी जानकारी जानना चाहते हैं, तो कुछ नहीं।

डॉ. नीलिमा जंपाना, एमबीबीएस, MRCPsych, सलाहकार मनोचिकित्सक, पीटरबरो, यूके

अवसाद दुनिया भर में अक्षमता का एक प्रमुख कारण है। हल्के से लेकर बड़े अवसाद कैंसर के मरीजों में आम बात हैं। सभी कैंसर के 24% मरीजों में अवसाद हो सकता है, और इलाज के दौरान तो उससे भी ज्यादा हो सकता है। जिन मरीजों को अंतिम चरण का कैंसर होता है और जिनकी उपशामक देखभाल होती है, उनमें भी अवसाद पाया गया है। अवसाद होने के कारण कैंसर और उसके उपचार के अनुपालन को क्षति पहुंचती है। यह बीमारी के बोझ से निपटने के लिए मरीज की क्षमता में बाधक भी हो सकता है। अवसाद के शीघ्र निदान और उपचार से कैंसर के पूर्वानुमान और जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है।

अवसाद सिर्फ कुछ दिनों के लिए दुखी या तंग आ जाने से कहीं बढ़कर है। अवसाद का निदान तब किया जाता है, जब मरीज अपनी मनोदशा में गिरावट महसूस करता है, कम ऊर्जा स्तर के साथ ही कम से कम 2 सप्ताह के लिए अभिरुचि में कमी महसूस करता है। नाखुश और अवसाद के बीच की संकीर्ण रेखा यह है कि आने वाले दिनों में ये जीवन को बाधित करते हैं। नींद, भूख और एकाग्रता का स्तर भी प्रभावित हो सकता है। चिंता, अशांति, कम आत्मसम्मान, अपराध बोध, निराशावादी विचार, निराशा और आत्महत्या के विचार मध्यम से गंभीर अवसाद में पाए जाते हैं।

ऐसे कई कारक हो सकते हैं, जो कैंसर मरीजों में अवसाद का कारण बन सकते हैं। कैंसर के निदान के लिए प्रतिक्रिया, जीवन-शैली में बदलाव, उपचार के दुष्प्रभाव और भविष्य की अनिश्चितता सामान्य कारक हैं। चिंताग्रस्त और आश्रित प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोग, जिनके पास अवसाद का पिछला या पारिवारिक इतिहास है, जो गरीब सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले हैं और सामाजिक समर्थन की कमी से अवसाद की चपेट में हैं।

कैंसर के मरीजों में कभी-कभी अवसाद पर ध्यान नहीं दिया जाता है। अवसाद के लक्षण इस कारण से भी छूट जाते हैं कि कैंसर और उसके उपचार के कारण होने वाले शारीरिक स्वास्थ्य लक्षण एक जैसे हो सकते हैं। सुस्ती, बेचैनी, भूख न लगना, दर्द, मतली और सांस फूलना अवसाद और कैंसर दोनों के लिए लागू हो सकते हैं। मरीज, परिवार और डॉक्टर द्वारा इसके होने पर संदेह करना, एक विस्तृत मूल्यांकन के बाद निदान करने में मदद करेगा।

अवसाद एक बहुत ही उपचार योग्य स्थिति है और अवसाद से पीड़ित लोगों के लिए एंटीडिप्रेसेंट आमतौर पर निर्धारित दवाएं हैं। पुराने की तुलना में नए एंटीडिप्रेसेंट दवाएं बेहतर होती हैं। एंटीडिप्रेसेंट्स के साथ लंबे समय से एक कलंक जुड़ा हुआ है, कि मरीजों को इन दवाइयों की आदत लग जाती है और वह इनपर निर्भर हो जाता है। लेकिन यह एक मिथक बस है। ये दवाएं मनोवैज्ञानिक निर्भरता [लालसा] का कारण नहीं बनती हैं और साथ ही अधिकांश नई दवाएं नशे का कारण नहीं बनती हैं। कैंसर के मरीजों में एंटीडिप्रेसेंट का उपयोग, शारीरिक स्वास्थ्य के मुद्दों, शारीरिक कमजोरी और अवसाद की गंभीरता पर निर्भर करता है।

एंटीडिप्रेसेंट लेने वाले अधिकांश मरीजों को लाभ होता है। कारगर साबित होने में इन्हें 2 से 8 सप्ताह लग सकते हैं, इसलिए इनकी प्रभावशीलता का आकलन करने से पहले, कम से कम 2 महीने के परीक्षण की सलाह दी जाती है। एंटीडिप्रेसेंट के दुष्परिणाम दवा के प्रकार और खुराक के साथ अलग-अलग होते हैं। एक सप्ताह के बाद कुछ दुष्प्रभाव ख़त्म हो जाते हैं। यदि नहीं, तो एक वैकल्पिक एंटीडिप्रेसेंट पर विचार किया जा सकता है। एंटीडिप्रेसेंट की खुराक आमतौर पर शुरू में कम होती है और धीरे-धीरे मरीज की सहनशीलता के आधार पर बढ़ती जाती है। इन्हें अचानक रोक देने से चिड़चिड़ापन और चिंता जैसे लक्षण आ सकते हैं। इसलिए, इन्हें डॉक्टर की सलाह के तहत धीरे-धीरे कम किया जाना चाहिए।

कई प्रकार की मनोचिकित्सा या टॉकिंग थेरेपी हैं, जो अवसाद के लक्षणों में मदद कर सकती हैं। अवसाद के साथ कैंसर के मरीजों में आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली चिकित्सा संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी [CBT] है। सीबीटी में, चिकित्सक मरीज को व्यवहार, विचार और भावनाओं के बीच सहयोग की पहचान करने में मदद करता है। वे चक्र को तोड़ने में मदद करने के लिए संरचित रणनीतियों की सिफारिश करते हैं। मरीज नकारात्मक विचारों और भावनाओं को पहचानना सीखते हैं और चिकित्सक के मार्गदर्शन में होमवर्क और मानसिक अभ्यास के माध्यम से उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम होते हैं।

ईसीटी, इलेक्ट्रो कॉनवुल्सिव थेरेपी गंभीर अवसाद के लिए उपचार का एक तरीका है। यह उस अवसाद के लिए इस्तेमाल की जाती है, जब एंटीडिप्रेसेंट अप्रभावी होते हैं। गंभीर अवसाद में मरीज खाना, सोना या अन्य लोगों से बात करना बंद कर सकते हैं। वे उन चीजों की कल्पना कर सकते हैं, जो वास्तविक जीवन में नहीं हो रही हैं, जिससे संदेह, आत्मघाती विचार और आक्रामक व्यवहार हो सकते हैं। इन स्थितियों में, ईसीटी एंटीडिप्रेसेंट की तुलना में जल्दी काम करता है। कैंसर मरीजों का इसके लिए मूल्यांकन किया जा सकता है कि क्या वे ईसीटी के लिए फिट हैं।

अस्पताल में ईसीटी एक दिन की प्रक्रिया के रूप में दी जाती है और आमतौर पर मरीज ठीक हो जाते हैं और सत्र के बाद 8 घंटे के भीतर घर पर लौट जाते हैं। प्रक्रिया के दौरान, मरीजों को मांसपेशियों के आराम और संवेदनाहारी के लिए एक एजेंट दिया जाता है, जो उन्हें लगभग 10 मिनट के लिए सुला देता है। कुछ सेकंड के लिए बिजली के आवेगों के छोटे, नियंत्रित सेट को देने के लिए इलेक्ट्रोड को मरीज के सिर पर रखा जाता है। उन्हें एक जब्ती का उत्पादन करना चाहिए जो बदले में मस्तिष्क में कुछ रसायनों को बढ़ाने में मदद करेगा, जिससे उनके मनोदशा में सुधार होगा। मरीजों को उपचार के दौरान दौरे या किसी भी जुड़े दर्द का एहसास नहीं होता है। ईसीटी के दुष्प्रभाव अल्पकालिक भ्रम और सिरदर्द हैं।

अन्य उपचार जो कैंसर मरीजों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में मददगार हो सकते हैं, वे हैं – देखभालकर्ता शिक्षा और समर्थन, चिंता प्रबंधन और मनमर्जी। देखभालकर्ता समर्थन और राहत महत्वपूर्ण बातें हैं। पति या पत्नी और करीबी सदस्यों पर कैंसर के निदान का प्रभाव बहुत बड़ा होता है। देखभालकर्ताओं को अपने तनाव और भावनाओं को बाहर निकालने के लिए अवसर और स्थान दिए जाने की आवश्यकता होती है। यह याद रखना चाहिए कि देखभालकर्ता को अपने जीवन में कुछ सामान्यता जारी रखनी चाहिए और देखभाल की भूमिका से कुछ समय दूर रहना चाहिए। यह देखभाल एजेंसियों, विस्तारित परिवार के समर्थन और / या एक छोटे ब्रेक से अतिरिक्त सहायता के साथ सुगम हो सकता है। राहत देखभालकर्ता को उनकी मानसिक और शारीरिक शक्ति को बेहतर बनाने में मदद करता है, जो कैंसर के साथ उनके प्रियजन का समर्थन करने के लिए आवश्यक है।

कैंसर का निदान और इसके नतीजे, परिवार के सदस्यों के बीच चर्चा के लिए एक अति संवेदनशील विषय बन सकते हैं। यह पारस्परिक संबंधों को नुकसान पहुंचाने वाले भावनात्मक प्रकोपों और तर्कों को जन्म दे सकता है। आवश्यकता पड़ने पर परामर्शदाता द्वारा परामर्श, उपचार योजना और भविष्य की योजना के बारे में चर्चा को निर्देशित और समर्थन किया जा सकता है।

मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों से जुड़े कलंक पिछले एक दशक में कम हो गए हैं। अधिक से अधिक लोग अवसाद से परिचित हैं और वे उपचार के लिए आगे आ रहे हैं। कैंसर मरीजों में अवसाद का निदान और उपचार महत्वपूर्ण है। मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक और समग्र चिकित्सक द्वारा अवसाद से पीड़ित मरीजों की मदद के लिए कई प्रकार की सेवाएं प्रदान की जाती हैं। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं वाले मरीजों को सहायता प्रदान करने के लिए ऑनलाइन स्व-सहायता और चैरिटी सेवाएं भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।